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‘आई’ और ‘यू’ के बीच पिसता प्यार

संवाद
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चैतन्य नागर
क्या प्रेम सिल्वर फिश की कुतरी हुई, फफूंद लगी किताब की तरह है जो अजीब-सी गंध लिए हुए शेल्फ के अन्दर से बार-बार अपने पास बुलाती है? या प्रेम घर के किसी कोने में पड़ी पुरानी टी-शर्ट की तरह है, जिसे न कोई पहनता है, न ही फ़ेंक पाता है, न ही किसी को दे पाता है…
प्रेम क्या अतीत से जुड़ी यादें हैं, कुछ इशारे हैं जो न जाने कब, कहाँ खो गये हैं! किसी की स्मृति, किसी को मिस करना, अतीत की अच्छी लगने वाली बातों में खो जाना—यही प्रेम है क्या? इतना लोडेड, भरी-भरकम शब्द; न जाने कितनी तरह से इसका इस्तेमाल होता है! आई लव माय कार, आई लव दिस रॉकस्टार… माय वाइफ, आइ लव यू मोर दैन आई कैन से… आइ लव गॉड… कितनी तरह से, कितने मौकों पर इस लफ़्ज़ का इस्तेमाल करते हैं हम…भाषा में बढ़ता जा रहा है, पर लगातार जीवन में तो कम होता दिखाई देता है। हकीकत में यह आपसी रिश्तों में, हमारी अपनी ज़िन्दगी में, दफ्तर में, दोस्तों के बीच… फेसबुकिया और वॉट्सैपिया प्यार के अलावा अब कुछ बचा है?… बाकी शब्दों की तरह क्या प्यार भी अपना अर्थ खो बैठा है?… पति-पत्नी के बीच भरोसे की बात अब आउटडेटेड मानी जा रही है… बच्चों को बोझ की तरह माना जा रहा है… शिक्षा सिर्फ नौकरी के लिए एक पासपोर्ट बन कर रह गई है। क्या इनका घटते हुए प्रेम से कोई सम्बन्ध है? इतिहास में पहली बार इंसान यह सोच रहा है कि यह हमारी आखिरी सदी है। हर रोज़ पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों की 250 प्रजातियां खत्म हो रही हैं। बाघ जैसा शानदार जीव अब सिर्फ म्यूज़ियम में देखा जाएगा। पृथ्वी का नाश हम और आप मिलकर कर रहे हैं। ऐसे में चलिए, प्रेम के बारे में कुछ सोचा ही जाए। आखिरी सांस लेती इस कीमती चीज़ पर कम-से-कम बैठ कर बातचीत तो करें। इतना प्रेम तो बचा कर रखा जाए अपने दिलों में। थोड़ा तो डूबा जाए इस आग के दरिया में… भले ही डूब कर बाहर न निकलें। रोज़ घटते जा रहे प्रेम के बारे में ही बात की जाए। इस शब्द और इसके पीछे छिपे सरल-जटिल निहितार्थों की पड़ताल की जाए।
लगता है जैसे ‘सुनना’ प्रेम का निकटतम पर्याय है, शांत होकर सुनना, किसी को भी सुनना, बगैर किसी बेचैनी के। भले ही कोई बात कितनी ही बेतुकी क्यों न हो। सिर्फ शांत होकर क्या सुना जा सकता है? सुनने से ही सच और झूठ अलग-अलग हो जाते हैं। सच्चा प्रेमी ज़रूर असली सुनक्कड़ होगा!
भीड़ की अफरा-तफरी में भी खुद के साथ ठहर जाना, अपने भीतर के किसी अनछुए कोने के स्पर्श में बने रहना प्रेम है। सड़क के किनारे पड़े किसी बीमार, निरीह चौपाये को देख कर आंखें नम हो जाएं, किसी भूखे-नंगे-गरीब को देख कर खुद पर शर्म आने लगे तो इसका मतलब आप प्रेम में है। प्रेम है रास्तों पर बेतरतीब उगे पेड़ों को छू-छू कर चलने में। देखने और महसूस करने में।
दर्द में होते हुए भी किसी मनगढ़ंत देवता को याद न करना; तैरना क्या होता है, यह मालूम न होने पर भी किसी अज्ञात-सी अनुभूति में छलांग लगा लेना, उसमें डूबना-उतरना प्यार है। प्यार है सबकुछ होते हुए, अपनी दरिद्रता को महसूस करने में; कुछ न होते हुए भी समृद्धि का अनुभव करने में। किसी के साथ रहते हुए भी उससे दूर हो जाने में। किसी से दूर रह कर भी उसका साथ महसूस करने में।
लगता है जैसे युगों तक किसी का इंतज़ार करते रहना प्रेम है, अस्तित्व के ट्रेडमिल पर दौड़ते-हांफते, थक कर कहीं बैठते, कराहते, ठहाके लगाते, चाय की चुस्कियों के बीच कोई कविता सुनते-सुनाते। बस हर वक़्त दिल के किसी कोने में कोई इंतज़ार धड़कता रहे, धडकनों के साथ-साथ। ऐसे किसी का इंतज़ार जिसे आप जानते भी न हों, न ही कभी मिले हों, न मिलने की कोई उम्मीद ही हो। अपनी ही रोपी नागफनियों के बिस्तर पर लेटे हुए भी, छत को ताकते हुए इसी इंतज़ार में जीना। प्रतीक्षा की पीड़ा और इसकी अबूझ क्रीड़ा में जीना प्रेम है।
प्रेम की किसी भी पूर्वनिर्मित, धर्मसम्मत परिभाषा पर भरोसा न करने को भी मैं प्यार मानता हूं। बासी परिभाषाओं को तोड़ने और नए सिरे से अपने प्यार को तलाशने, महसूस करने का नाम प्यार है।
पल-पल बनते संबंधों के आईने में अपने अहंकार की उपस्थिति के प्रति जगे रहना भी प्रेम है। प्रेम रोमांस नहीं, न ही सेक्स से उपजा सुख है। ये उसका हिस्सा ज़रूर हो सकते हैं लेकिन प्रेम इनसे अलग कुछ है। इन दोनों की अपनी सीमाएं हैं, और इनके साथ तो हमेशा भय और असुरक्षा का अंधेरा चलता रहता है। प्रेम के बारे में लिखने से बेहतर है उसे जिया जाए। लिखना आसान है, जीना मुश्किल। प्रेम के अभाव की महाविपत्ति को देखते हुए जहां तक हो सके, अपने-अपने हिसाब से, अपने-अपने हिस्से के प्रेम को जी पाना ही प्रेम है।
क्या प्यार मोहब्बत की दुनिया में बाजार की घुसपैठ से रोमेंटिक प्रेम इतना महिमामंडित हो गया है? क्या सदियों पहले इंसान उस अर्थ में प्रेम का अनुभव करता था, व्यक्तिगत, आत्मकेंद्रित मनोभाव के रूप में, जैसा कि वह अब करता है? क्या रोमेंटिक प्रेम आधुनिक सभ्यता की देन है? क्या यह भीतर से खोखला और शोर करने वाला ढपोरशंख बस है? सारा झमेला, झंझट बस बिस्तर तक पहुंचने की ही अचेतन कोशिश है, और मन खुद को ही बेवकूफ बनाता रहता है प्रेम के नाम पर? कुदरत की गहरी साज़िश है सृष्टि को चलाने के लिए? फ्रॉयड यह मानता था कि प्रेम सेक्स की कामना की ही एक उपशाखा है। तो क्या सेक्स की खुल्लमखुल्ला अभिव्यक्ति न हो पाने से ही प्रेम और रोमांस का जन्म हुआ है? ‘ऐज़ यू लाइक इट’ में शेक्सपियर कहता है :”प्रेम तो बस एक पागलपन है, और मैं कहता हूँ कि जैसे पागलों को अँधेरी कोठरियों और कोड़ों की जरुरत पड़ती है, वैसे ही प्रेमियों को भी। पर प्रेमियों को ऐसी सजा इसलिए नहीं मिल पाती, क्योंकि यह पागलपन इतना सामान्य है कि कोड़े लगाने वाले खुद भी प्रेम में होते हैं।”…रूमी तो विरह को भी नकार देता है और कहता है: “आशिक तो कहीं और मिलते नहीं, वे तो हमेशा एक दूसरे के भीतर ही सांस लेते हैं।”
आई लव यू कहने में लगता है जैसे आई और यू के बीच प्रेम का सैंडविच बना जा रही है! और भी सवाल हैं। क्या प्रेम ईर्ष्या है? क्या प्रेम मोह, लगाव है? आप किसी से प्रेम करे और उसे किसी और के साथ देखें तो रोम रोम में आग क्यों लगती है? इसका अर्थ है कि प्रेम में बड़ी कठोर शर्तें होती हैं। और प्रेम पूरी तरह से माशूका या आशिक को अपनी गिरफ्त में रखने की प्रवित्ति का ही नाम है। कुछ लोग इसपर एक उदार रवैया अपनाते हैं और कहते हैं: “आप जिसे प्यार करते हैं, उसे छोड़ दें; आपका होगा तो वापस आएगा, और न आया तो समझ लें कि आपका था ही नहीं।” प्रेम से ईर्ष्या, डाह और जलन को अलग करके देखना बड़ा मुश्किल है। कहते हैं कबीर को जब मालूम हुआ कि उनकी पत्नी का किसी और से प्रेम है तो वह खुद उसे तैयार करके, सजा संवार कर ले चले उसके पास। और ऐसा करते समय उनके अंदर कोई दुःख या क्लेश का भाव नहीं था। पर यह तो एक असाधारण घटना है। आम तौर पर तो आशिक की हालत शेक्सपियर के ऑथेलो वाली ही होती है। अपनी माशूका के पास रकीब का एक रुमाल देख कर ही उसकी जान ले लेता है। वैसे भी कोई आम तौर पर अपने प्रेमी या प्रेमिका को ‘किसी और’ के साथ देख कर कलेजे में जलन महसूस न करे तो यह मान लिया जायेगा कि प्यार है ही नहीं। जहाँ प्यार की आग है, वहां ईर्ष्या की जलन तो होनी ही है, आम स्कूल ऑफ़ थॉट तो यही कहता है।
क्या प्रेम घृणा का विपरीत है? आम तौर पर इसका जवाब है: ‘हाँ’, पर मनोवैज्ञानिक कहेंगे कि ऐसा नहीं। क्योंकि विपरीत में तो विपरीत के बीज होते हैं। तो यदि प्रेम घृणा के विपरीत संवर्धित किया गया है, प्रतिक्रियास्वरूप निर्मित किया गया है तो वह वह घृणा का ही एक परिष्कृत, संशोधित रूप भर है। सिगमंड फ्रॉयड इसे रिएक्शन फार्मेशन कहता है। ग़ालिब भी इसे खूब समझते थे। उनको मालूम था कि नफ़रत के रिश्ते प्रेम से ज़्यादा मज़बूत होते हैं। इसलिए उन्होंने लिखा: “क़त`अ कीजे न त`अल्‌लुक़ हमसे, कुछ नहीं है तो `अदावत ही सही।“ वह लिखते हैं अपनी माशूका को कि रिश्ता तोड़ने से बेहतर है कि मुझसे दुश्मनी ही बना कर रखो। आशिक बहुत ही धूर्त जीव होता है, और किसी कीमत पर अपने लगाव को बचा रखने की हर कला में पारंगत होता है। वह तो चाहता है कि बस एक बार माशूका आ जाये और इस पीड़ा में रो रोकर कहता है: “रंजिश ही सही, दिल ही दुखने के लिए आ, आ फिर तू मुझे छोड़ के जाने के लिए आ।” उसकी हताशा देखिए, उसका गम देखिए, और मनाने के तरीके देखिए: “कुछ तो मेरी पिन्दारे मोहब्बत का भरम रख, तू भी तो कभी मुझको मनाने के लिए आ।”

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